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Class 12th History ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ || हड़प्पा सभ्यता

12th arts history study material
1. ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ (हड़प्पा सभ्यता)

हड़प्पा सभ्यता, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता भी कहते हैं, भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन और पहली शहरी सभ्यता थी

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सभ्यता की खोज :- हड़प्पा सभ्यता की खोज का इतिहास काफी रोचक है, जो कई चरणों में हुआ। यह अचानक नहीं खोजी गई, बल्कि धीरे-धीरे इसके अवशेषों पर ध्यान दिया गया।

खोज का प्रारंभिक इतिहास

  1826: एक ब्रिटिश सैनिक चार्ल्स मैसन ने पहली बार हड़प्पा के टीले को देखा और इसके

बारे में लिखा।

1853-1873: अलेक्जेंडर कनिंघम, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पहले महानिदेशक थे,

कई बार हड़प्पा का दौरा किया, लेकिन वे इसके महत्व को पूरी तरह से समझ नहीं पाए। उन्होंने कुछ

मुहरें भी पाईं, लेकिन उन्हें यह एक विदेशी सभ्यता की मुहरें लगीं।

1856: लाहौर और कराची के बीच रेलवे लाइन बिछाते समय, इंजीनियरों ने हड़प्पा के टीलों से ईंटों का उपयोग किया, जिससे कई महत्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य नष्ट हो गए।

हड़प्पा सभ्यता की व्यवस्थित खोज का श्रेय मुख्य रूप से दयाराम साहनी और राखालदास बनर्जी को जाता है, जिन्होंने भारतीय पुरातत्व विभाग के निदेशक जॉन मार्शल के नेतृत्व में खुदाई का काम किया।

1921: दयाराम साहनी ने हड़प्पा नामक स्थल की खुदाई शुरू की,

जो वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है।

1922: राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो नामक स्थल की खुदाई की,

जो सिंध प्रांत में स्थित है।

इन दोनों खोजों के बाद, 1924 में जॉन मार्शल ने सिंधु घाटी में एक नई

सभ्यता की खोज की औपचारिक घोषणा की, जिसने दुनिया को एक प्राचीन

और उन्नत शहरी सभ्यता से परिचित कराया।

हड़प्पा सभ्यता का नामकरण : हड़प्पा सभ्यता का नामकरण हड़प्पा नामक स्थल पर आधारित है, जो इस सभ्यता का सबसे पहला खोजा गया स्थल था। 1921 में दया राम साहनी ने इस स्थल की खोज की थी।

जब किसी सभ्यता का पहला स्थल खोजा जाता है, तो उस सभ्यता का नामकरण अक्सर उसी स्थल के नाम पर कर दिया जाता है। इसी कारण, इस इस सभ्यता को सिंधु घाटी सभ्यता भी कहा जाता है, क्योंकि इसके अधिकांश स्थल सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के आसपास पाए गए हैं।

प्रारंभ में इस सभ्यता का विस्तार लगभग 12 लाख 99 हजार 600 वर्ग किलोमीटर (12,99,600 वर्ग किमी) निर्धारित किया गया था, जो अब 15 से 20 लाख वर्ग किलोमीटर के आसपास होने की संभावना है।

सिंधु सभ्यता के लिए एक सुझाया गया नाम ‘सिंधु-सरस्वती संस्कृति‘ है, लेकिन इसका सबसे उपयुक्त नाम ‘हड़प्पा सभ्यता माना जाता है।

 भौगोलिक विस्तार

हड़प्पा सभ्यता का भौगोलिक विस्तार मुख्य रूप से आधुनिक पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिमी भारत में फैला हुआ था। इसकी सीमाएँ कुछ इस प्रकार थीं:

उत्तरी सीमा : जम्मू में मांडा।

दक्षिणी सीमा : महाराष्ट्र में दैमाबाद।

पूर्वी सीमा : उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर।

पश्चिमी सीमा : पाकिस्तान-ईरान सीमा पर सुत्कागेंडोर।

मांडा (Manda):- मांडा को हड़प्पा सभ्यता का सबसे उत्तरी स्थल माना जाता है, जो सभ्यता के भौगोलिक विस्तार को दर्शाता है।

यह स्थल जम्मू और कश्मीर के अखनूर जिले में स्थित है।

यह चिनाब नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है।

मांडा की खोज 1974 में जे.पी. जोशी ने की थी।

इस स्थल से हड़प्पा सभ्यता के तीनों चरणों- पूर्व-हड़प्पा, परिपक्व-हड़प्पा, और उत्तर-हड़प्पा- के साक्ष्य मिले हैं।

➤  इस प्रकार, मांडा हड़प्पा सभ्यता का सबसे उत्तरी बिंदु था और इसका महत्व इसके भौगोलिक स्थान और वहाँ पाए गए पुरातात्विक साक्ष्यों के कारण है।

दैमाबाद (Daimabad) :- हड़प्पा सभ्यता की दक्षिणी सीमा महाराष्ट्र में दैमाबाद  थी। यह स्थल अहमदनगर जिले में, प्रवर नदी के किनारे  स्थित है, जो गोदावरी की एक सहायक नदी है।

इस स्थल की खोज 1958 में बी.पी. बोपर्दिकर ने की थी।

खुदाई में यहाँ से कांस्य युग के कई महत्वपूर्ण अवशेष मिले हैं। इनमें चार कांस्य की मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं: एक गैंडा, एक हाथी, एक भैंसा और एक रथ चलाते हुए मनुष्य।

ये मूर्तियाँ और अन्य पुरातात्विक साक्ष्य इस बात का प्रमाण हैं कि हड़प्पा सभ्यता का प्रभाव दक्षिण में महाराष्ट्र तक फैला हुआ था। दैमाबाद अपनी कांस्य धातु कला के लिए प्रसिद्ध है और हड़प्पा सभ्यता के भौगोलिक विस्तार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

आलमगीरपुर (Alamgirpur) :- आलमगीरपुर  हड़प्पा सभ्यता का सबसे पूर्वी स्थल था। यह उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में हिंडन नदी के किनारे स्थित है, जो यमुना नदी की एक सहायक नदी है।

➤  इस स्थल की खुदाई 1958-59 में यज्ञदत्त शर्मा के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा की गई थी।

➤  यहाँ से हड़प्पा काल के मिट्टी के बर्तनों, मोहरों और मनकों के साक्ष्य मिले हैं। सबसे महत्वपूर्ण खोजों में से एक यहाँ मिला एक मिट्टी का टुकड़ा है जिस पर कपड़े का निशान है, जो उस समय के वस्त्र उद्योग को दर्शाता है।

आलमगीरपुर की खोज ने यह साबित किया कि हड़प्पा सभ्यता का विस्तार केवल सिंधु और उसकी सहायक नदियों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि यह गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र तक भी फैला हुआ था।

सुत्कागेंडोर (Sutkagen-dor) :-  सुत्कागेंडोर  हड़प्पा सभ्यता का सबसे पश्चिमी स्थल था। यह आधुनिक पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में, ईरान की सीमा के पास, दाश्तक नदी के किनारे स्थित है।

इस स्थल की खोज 1875 में मेजर एडवर्ड मोर्टिमर व्हीलर ने की थी, लेकिन इसकी विस्तृत खुदाई 1928 में ऑरेल स्टीन ने की।

सुत्कागेंडोर एक महत्वपूर्ण व्यापारिक चौकी थी, क्योंकि यह सिंधु घाटी से फारस की खाड़ी तक समुद्री व्यापार मार्ग पर स्थित थी। यहाँ से एक किलेनुमा संरचना और एक बंदरगाह के अवशेष मिले हैं, जो इसके रणनीतिक और व्यापारिक महत्व को दर्शाते हैं।

इसका स्थान यह सिद्ध करता है कि हड़प्पा सभ्यता का विस्तार न केवल उपमहाद्वीप के भीतर था, बल्कि इसके व्यापारिक संबंध पश्चिमी दिशा में भी बहुत दूर तक फैले हुए थे।

हड़प्पा सभ्यता के काल निर्धारण के लिए रेडियो-कार्बन डेटिंग (C-14) विधि का उपयोग किया गया है। विद्वानों ने सभ्यता को तीन मुख्य चरणों में विभाजित किया है:-

प्रारंभिक हड़प्पा काल (Early Harappan Phase):- लगभग 3300-2600 ईसा पूर्व

  यह चरण ग्रामीण बस्तियों और कृषि के विकास का समय था।

परिपक्व हड़प्पा काल (Mature Harappan Phase):- लगभग 2600-1900 ईसा पूर्व

यह सभ्यता का सबसे समृद्ध और शहरी चरण था, जिसमें बड़े शहर, उन्नत नगर योजना और

व्यापारिक गतिविधियाँ चरम पर थीं।

उत्तर हड़प्पा काल (Late Harappan Phase):- लगभग 1900-1300 ईसा पूर्व

इस काल में सभ्यता का धीरे-धीरे पतन शुरू हुआ और बड़े शहर वीरान होने लगे।

इस प्रकार, हड़प्पा सभ्यता का कुल समयकाल लगभग 3300 ईसा पूर्व से 1300 ईसा पूर्व तक माना जाता है।

जॉन मार्शल : 3250 ई.पू. – 2700 ई.पू.

अर्नेस्ट मैके : 2800 ई.पू. – 2500 ई.पू.

माधोस्वरूप वत्स: 3500 ई.पू. – 2700 ई.पू.

सी.जे. गैड : 2300 ई.पू. – 1750 ई.पू.

मार्टीमर व्हीलर : 2500 ई.पू. – 1500 ई.पू.

फेयर सर्विस: 2000 ई.पू. – 1500 ई.पू.

रेडियो कार्बन : 2350 ई.पू. – 1750 ई.पू.

एनसीईआरटी (NCERT) :- 2500 ई.पू. – 1800 ई.पू.

डी.पी. अग्रवाल : 2300 ई.पू. – 1700 ई.पू.

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थलों के नाम

क्रम स्थल का नाम नदी का किनारा खोजकर्ता वर्ष
1 हड़प्पा (पाकिस्तान) रावी दयाराम साहनी 1921
2 मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) सिंधु राखालदास बनर्जी 1922
3 रोपड़ (पंजाब) सतलुज वाई. डी. शर्मा 1953
4 कालीबंगा (राजस्थान) घग्गर अमलानंद घोष 1953
5 लोथल (गुजरात) भोगवा एस. आर. राव 1954
6 रंगपुर (गुजरात) भादर/सुकभादर एस. आर. राव 1953
7 आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश) हिंडन वाई. डी. शर्मा 1958
8 कोट दीजी (पाकिस्तान) सिंधु फजल अहमद खान 1955
9 बनावली (हरियाणा) रंगोई/सरस्वती आर. एस. बिष्ट 1974
10 धौलावीरा (गुजरात) लूनी जे. पी. जोशी 1967-68
11 राखीगढ़ी (हरियाणा) घग्गर सूरजभान 1963
12 सुत्कागेंडोर (पाकिस्तान) दाश्त आर. एल. स्टीन 1928
13 चन्हुदड़ो (पाकिस्तान) सिंधु एन. जी. मजूमदार 1931
14 सुरकोटदा (गुजरात) सरस्वती जे. पी. जोशी 1964
15 बालाकोट (पाकिस्तान) कुनहार (नैनसुख नदी) जॉर्ज डलेस 1973-76
16 दैमाबाद (महाराष्ट्र) प्रवरा बी. पी. बोपर्दिकर 1958
17 मांडा (जम्मू-कश्मीर) चिनाब जे. पी. जोशी 1974-76
क्रम स्थल का नाम प्राप्त प्रमुख वस्तुएं
1. मोहनजोदड़ो विशाल स्नानागार, विशाल अन्नागार, कांसे की नर्तकी की मूर्ति, पशुपति महादेव की मुहर, सूती कपड़े का टुकड़ा।
2. हड़प्पा R-37 कब्रिस्तान, मानव शरीर की बलुआ पत्थर की मूर्तियाँ, तांबे का इक्का गाड़ी, अन्न भंडार।
3. लोथल गोदीवाड़ा (बंदरगाह), चावल के अवशेष, अग्नि वेदिकाएं, हाथी दांत का पैमाना, तीन युगल समाधियां।
4. कालीबंगा जुते हुए खेत का साक्ष्य, अग्नि वेदिकाएं, कच्ची ईंटों के मकान, ऊँट की हड्डियाँ।
5. बनावली मिट्टी का हल, अच्छी किस्म का जौ, सड़कों पर बैलगाड़ी के पहियों के निशान।
6. राखीगढ़ी विशाल अन्नागार, कब्रगाह, तांबे की वस्तुएं, अग्निवेदियां।
7. धौलावीरा जल प्रबंधन प्रणाली (जलाशय), स्टेडियम, 10 बड़े अक्षरों वाला सूचना पट्ट (साइनबोर्ड)।
8. चन्हुदड़ो मनके बनाने का कारखाना, लिपस्टिक के अवशेष, बिल्ली का पीछा करते हुए कुत्ते के पदचिह्न।
9. सुरकोटदा घोड़े की हड्डियाँ, कलश शवाधान।
10. रोपड़ मनुष्य के साथ कुत्ते को दफनाने का साक्ष्य, तांबे की कुल्हाड़ी।
11. आलमगीरपुर मिट्टी के बर्तन पर कपड़े के निशान, मनके।
12. कोट दीजी पत्थर की कुल्हाड़ियाँ, किलेबंदी का अभाव।
13. सुत्कागेंडोर बंदरगाह (बंदरगाह होने का अनुमान), व्यापार का केंद्र, मिट्टी के बर्तन।
14. आमरी बारहसिंगा का साक्ष्य, गैंडे के अवशेष।
15. दैमाबाद कांसे का रथ, गैंडे, हाथी और बैल की आकृतियाँ।

वर्तमान में सिंधु घाटी सभ्यता के 1500 से अधिक स्थलों की खोज की जा चुकी है। इनमें से अधिकांश स्थल भारत में पाए गए हैं।

इन स्थलों में से लगभग 1400 केंद्र ऐसे हैं जिनकी पहचान हो चुकी है।

इनमें से 925 से अधिक केंद्र भारत में स्थित हैं।

लगभग 80% स्थल सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के किनारे पाए गए हैं।

यह संख्या लगातार बदलती रहती है, क्योंकि पुरातात्विक सर्वेक्षणों और खुदाई के साथ नए स्थलों की खोज जारी है।

हड़प्पा सभ्यता का नगर योजना और संरचनाएँ

हड़प्पा सभ्यता अपनी उन्नत नगर योजना और संरचनाओं के लिए जानी जाती है, जो उस समय की सबसे विकसित शहरी सभ्यताओं में से एक थी।

नगर योजना

हड़प्पा के नगरों को एक विशेष ग्रिड पैटर्न पर बनाया गया था, जिसमें सड़कें और गलियाँ एक-दूसरे को समकोण (90 डिग्री) पर काटती थीं। शहर दो मुख्य भागों में विभाजित थे:

गढ़ (Citadel) :- यह पश्चिमी भाग में ऊँचाई पर स्थित था और संभवतः शासक वर्ग से संबंधित था। इसमें महत्वपूर्ण सार्वजनिक इमारतें थीं।

निचला शहर (Lower Town):- यह पूर्वी भाग में बड़ा लेकिन नीचा था, जहाँ आम लोग रहते थे।

इस सभ्यता की सबसे खास विशेषता उसकी जल निकासी प्रणाली (drainage system) थी। घरों से निकलने वाली छोटी नालियाँ गलियों की मुख्य नालियों से जुड़ी थीं, जो पक्की ईंटों से बनी थीं और ढकी हुई थीं। यह स्वच्छता के प्रति उनके उच्च दृष्टिकोण को दर्शाता है।

प्रमुख संरचनाएँ

हड़प्पा सभ्यता में कई महत्वपूर्ण संरचनाएँ मिली हैं:

विशाल स्नानागार (Great Bath) :- मोहनजोदड़ो में मिला यह एक बड़ा आयताकार जलाशय है, जिसका उपयोग संभवतः धार्मिक अनुष्ठानों के लिए किया जाता था। इसकी दीवारों और फर्श को जिप्सम के गारे से सील किया गया था ताकि पानी का रिसाव न हो।

अन्नागार (Granaries) :- मोहनजोदड़ो और हड़प्पा दोनों में बड़े अन्नागार मिले हैं, जिनका उपयोग अनाज को जमा करने के लिए किया जाता था।

आवासीय भवन : घर आमतौर पर आँगन-केंद्रित (courtyard-centered) होते थे। आँगन घर का केंद्र होता था, जहाँ खाना पकाने जैसे काम होते थे। गोपनीयता का ध्यान रखा जाता था, इसलिए घर की दीवारों में खिड़कियाँ नहीं थीं। अधिकांश घरों में अपना स्नानघर और कुआँ होता था।

पक्की ईंटें : सभी संरचनाओं के निर्माण में मानकीकृत (standardized) आकार की पक्की ईंटों(लंबाई:चौड़ाई:ऊँचाई = 4:2:1 अनुपात)। का उपयोग किया जाता था, जो उनकी उन्नत वास्तुकला को दर्शाता है।

हड़प्पा सभ्यता का कृषि

हड़प्पा सभ्यता का मुख्य व्यवसाय कृषि था। हड़प्पावासी विभिन्न प्रकार की फसलों को उगाते थे और खेती के लिए उन्नत तकनीकों का उपयोग करते थे।

प्रमुख फसलें

गेहूं और जौ : ये हड़प्पा के लोगों का मुख्य भोजन थे।

दालें : मटर, चना और अन्य दालों का भी उत्पादन किया जाता था।

तिलहन : सरसों और तिल जैसी फसलों को तेल के लिए उगाया जाता था।

कपास : मेहरगढ़ में मिले साक्ष्यों से पता चलता है कि हड़प्पावासी कपास उगाने वाले पहले लोगों में से थे। कपड़ों और धागों के लिए इसका उपयोग होता था।

चावल : लोथल और रंगपुर जैसे स्थानों पर चावल के अवशेष मिले हैं, जिससे पता चलता है कि यहाँ भी इसकी खेती होती थी।

कृषि प्रौद्योगिकी

हल (Plough) :- कालीबंगन में जुते हुए खेत के अवशेष मिले हैं, जिससे पता चलता है कि हल का उपयोग किया जाता था। इसके अलावा, बनावली (हरियाणा) से मिट्टी के बने हल के खिलौने भी मिले हैं।

सिंचाई (Irrigation) :- शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में कृषि के लिए सिंचाई की आवश्यकता थी। अफगानिस्तान के शोर्तुगई नामक हड़प्पा स्थल पर नहरों के अवशेष मिले हैं। इसके अलावा, कुओं और जलाशयों का भी उपयोग किया जाता था। गुजरात के धोलावीरा में जल संचयन के लिए बने विशाल जलाशय भी पाए गए हैं।

फसल कटाई (Harvesting):- फसलों को काटने के लिए पत्थर और धातु के औजारों का इस्तेमाल किया जाता था।

हड़प्पा सभ्यता का पशुपालन

हड़प्पा सभ्यता में कृषि के साथ-साथ पशुपालन (animal husbandry) भी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। लोग भोजन, परिवहन, और खेती के लिए जानवरों को पालते थे।

पाले जाने वाले प्रमुख जानवर

गाय, भैंस, भेड़ और बकरी: ये सबसे आम पाले जाने वाले जानवर थे। इनका उपयोग दूध, मांस, और ऊन के लिए किया जाता था।

बैल: खेती के लिए बैलों का व्यापक उपयोग होता था। हल चलाने और सामान ढोने के लिए बैलगाड़ियों में इनका इस्तेमाल किया जाता था।

कुत्ते और बिल्लियाँ: ये घरों में पाले जाने वाले पालतू जानवर थे।

हाथी: हाथी का उपयोग संभवत भारी सामान ढोने या शाही समारोहों में होता था।

मुर्गी : मुर्गीपालन भी प्रचलित था, जिसका उपयोग मांस और अंडों के लिए किया जाता था।

पशुपालन के साक्ष्य

मिट्टी की मूर्तियाँ (Terracotta Figurines):- विभिन्न हड़प्पा स्थलों से जानवरों की मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें बैल, भैंस, कुत्ते और भेड़ शामिल हैं।

हड्डियाँ :– उत्खनन के दौरान जानवरों की हड्डियाँ मिली हैं, जो उनके आहार और पशुपालन की पुष्टि करती हैं।

मुहरें (Seals) :- कई मुहरों पर जानवरों के चित्र अंकित हैं, जिनमें एक सींग वाला जानवर (unicorn), बैल, भैंस और हाथी प्रमुख हैं।

बैलगाड़ी के खिलौने: मिट्टी से बनी बैलगाड़ी के खिलौने मिले हैं, जो यह दर्शाते हैं कि बैलगाड़ी परिवहन का एक महत्वपूर्ण साधन थी।

हड़प्पा सभ्यता का शिल्प और तकनीकी ज्ञान

हड़प्पा सभ्यता अपने उन्नत शिल्प (crafts) और तकनीकी ज्ञान के लिए भी प्रसिद्ध थी। यहाँ के कारीगर धातु, पत्थर और मिट्टी से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाने में कुशल थे।

शिल्प उत्पादन

हड़प्पा में शिल्प उत्पादन के प्रमुख केंद्र थे, जैसे कि चन्हुदड़ो, जो पूरी तरह से शिल्प के लिए समर्पित एक शहर था।

मनके बनाना : मनके (beads) बनाने का काम बहुत विकसित था।

सामग्री : मनके बनाने के लिए कार्नेलियन, जैस्पर, स्फटिक, क्वार्ट्ज और स्टीएटाइट जैसे पत्थरों का उपयोग किया जाता था।

तकनीक : मनकों को अलग-अलग आकारों (डिस्क-आकार, बेलनाकार, गोलाकार) में ढाला जाता था। इन्हें बनाने के लिए छेनी, पॉलिश और ड्रिलिंग जैसी तकनीकों का इस्तेमाल होता था। लोथल, चन्हुदड़ो और धोलावीरा में ड्रिल करने के विशेष उपकरण मिले हैं।

धातु का काम :– हड़प्पावासी कांसे (bronze), तांबा (copper) और सोने-चांदी का उपयोग करते थे।

कांसे : कांसे की ढलाई के लिए वे लॉस्ट-वैक्स तकनीक (lost-wax technique) का प्रयोग करते थे। मोहनजोदड़ो से मिली नर्तकी की मूर्ति इसका एक बेहतरीन उदाहरण है।

तांबा : तांबे के औजार, हथियार और बर्तन बनाए जाते थे।

सोने-चांदी : सोने और चांदी से आभूषण बनाए जाते थे, जो संभवतः अमीर लोगों द्वारा पहने जाते थे।

मिट्टी के बर्तन (Pottery):- हड़प्पा सभ्यता में मिट्टी के सुंदर और चमकदार बर्तन बनाए जाते थे, जो चाक (potter’s wheel) पर बनते थे।

इन बर्तनों पर लाल या काले रंग से ज्यामितीय (geometric) डिज़ाइन और जानवरों के चित्र बनाए जाते थे।

मुहरें और मुहरबंदी:

मुहरें (Seals):- ये ज्यादातर स्टीएटाइट (steatite) नामक मुलायम पत्थर से बनी थीं। इन पर जानवरों (जैसे बैल, भैंस, एक सींग वाला जानवर) और हड़प्पा लिपि के चित्र अंकित होते थे। इनका उपयोग संभवतः व्यापार और पहचान के लिए किया जाता था।

मुहरबंदी (Sealing):- गीली मिट्टी पर मुहर लगाने को मुहरबंदी कहते थे, जिसका उपयोग शायद सामान की सुरक्षा या स्वामित्व को दर्शाने के लिए किया जाता था।

तकनीकी ज्ञान

हड़प्पा के कारीगरों को कई तकनीकों का गहरा ज्ञान था:

भट्ठों का उपयोग: वे मिट्टी के बर्तनों और ईंटों को पकाने के लिए भट्ठों का उपयोग करते थे।

ड्रिलिंग और पॉलिशिंग: पत्थरों और मनकों पर बारीकी से काम करने के लिए उन्हें ड्रिलिंग और पॉलिशिंग का ज्ञान था।

धातु गलाने की तकनीक: तांबे और टिन को मिलाकर कांस्य बनाने की कला से वे परिचित थे।

मानकीकरण: उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि वे ईंटों और बाटों (weights) को एक मानकीकृत अनुपात में बनाते थे, जो उनके गणितीय और तकनीकी कौशल को दर्शाता है।

हड़प्पा सभ्यता का व्यापार

हड़प्पा सभ्यता का व्यापार

हड़प्पा सभ्यता एक समृद्ध व्यापारिक सभ्यता थी, जो न केवल अपने शहरों के भीतर बल्कि दूर-दराज के क्षेत्रों जैसे मेसोपोटामिया (Mesopotamia) और ओमान के साथ भी व्यापार करती थी।

व्यापार के साधन

बैलगाड़ी: परिवहन का सबसे आम साधन बैलगाड़ी थी, जिसका उपयोग आंतरिक व्यापार के लिए होता था।

नाव और समुद्री मार्ग:– हड़प्पा के लोग समुद्री व्यापार में भी कुशल थे। लोथल में एक गोदीबाड़ा (dockyard) मिला है, जो दर्शाता है कि वे जहाजों का उपयोग करते थे।

व्यापारिक वस्तुएँ

हड़प्पा के लोग विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का आयात-निर्यात करते थे:

निर्यात (Export):

कृषि उत्पाद : अनाज, कपास।

शिल्प उत्पाद :– मनके, हाथीदाँत से बनी वस्तुएँ, धातु के औजार और बर्तन।

आयात (Import):-

धातुएँ: राजस्थान से तांबा और अफगानिस्तान/ईरान से सोना-चांदी।

बहुमूल्य पत्थर: अफगानिस्तान से लाजवर्द (Lapis Lazuli) और गुजरात से कार्नेलियन।

लकड़ी और अन्य सामग्री :– हिमालय क्षेत्र से देवदार और अन्य कीमती लकड़ियाँ।

व्यापार के साक्ष्य :-

मुहरें (Seals):- हड़प्पा की मुहरें मेसोपोटामिया के शहरों जैसे उर में मिली हैं, जो दूर-दराज के व्यापार का प्रमाण हैं।

मुहरबंदी (Sealing):- मुहरबंद किए गए पैकेट और बर्तनों के साक्ष्य मिले हैं, जो व्यापारिक लेन-देन की पुष्टि करते हैं।

बाट और माप (Weights and Measures):- हड़प्पा सभ्यता में एक मानकीकृत वजन प्रणाली थी, जिसमें बाट (weights) चट (chert) नामक पत्थर से बनाए जाते थे। यह एक नियंत्रित और व्यवस्थित व्यापारिक प्रणाली को दर्शाता है।

डिलमुन, मागन और मेलुहा: मेसोपोटामिया के लेखों में डिलमुन (Dilmun – संभवतः बहरीन), मागन (Magan – संभवतः ओमान) और मेलुहा (Meluha – संभवतः हड़प्पा क्षेत्र) जैसे स्थानों का उल्लेख है, जो इन सभ्यताओं के बीच व्यापारिक संबंधों को दर्शाता है।

हड़प्पा सभ्यता के राजनीतिक संगठन

हड़प्पा सभ्यता के राजनीतिक संगठन के बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है क्योंकि इसकी लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। हालाँकि, पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर कई सिद्धांत प्रचलित हैं।

संभावित राजनीतिक संगठन

इतिहासकार और पुरातत्वविदों ने हड़प्पा सभ्यता के राजनीतिक संगठन को समझने के लिए कुछ अनुमान लगाए हैं:

कोई शासक नहीं: कुछ विद्वानों का मानना है कि हड़प्पा सभ्यता में कोई एक शासक वर्ग नहीं था। चूंकि सभी बस्तियों में एक जैसी मानकीकृत वस्तुएं (ईंटें, बाट, मुहरें) मिली हैं, यह एक समानतावादी (egalitarian) समाज को दर्शाता है।

शासकों का समूह: कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि हड़प्पा के शासक एक एकल व्यक्ति नहीं, बल्कि व्यापारियों, पुजारियों या भूमिपतियों का एक समूह था जो मिलकर शासन करता था।

एक केंद्रीय सत्ता: यह भी संभव है कि हड़प्पा सभ्यता में एक केंद्रीकृत सत्ता थी जो शहर के नियोजन, जल निकासी प्रणाली और व्यापार को नियंत्रित करती थी। विशाल स्नानागार, अन्नागार और गढ़ जैसी संरचनाएं एक केंद्रीय प्राधिकरण की उपस्थिति का संकेत देती हैं, जिसने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक परियोजनाओं का आयोजन किया होगा।

सत्ता के साक्ष्य

नियोजन और मानकीकरण: नगरों की सुनियोजित व्यवस्था, मानकीकृत ईंटें और बाट जैसी चीजें दर्शाती हैं कि कोई एक केंद्रीय शक्ति थी जो नियमों को लागू करती थी।

समानता: हड़प्पा के शहरों में बड़े महलों या मंदिरों के स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिले हैं, जो यह सुझाव देते हैं कि सत्ता कुछ लोगों के हाथों में थी, लेकिन वह मिस्र या मेसोपोटामिया की तरह केंद्रीकृत और शक्तिशाली नहीं थी।

निष्कर्ष के तौर पर, यह कहना मुश्किल है कि हड़प्पा सभ्यता का शासक कौन था या उनका राजनीतिक ढाँचा कैसा था। संभवतः यह एक ऐसी व्यवस्था थी जहाँ सत्ता किसी एक राजा के बजाय, सामुदायिक नेतृत्व या एक विशिष्ट वर्ग के हाथों में थी।

हड़प्पा सभ्यता के सामाजिक जीवन

हड़प्पा सभ्यता के सामाजिक जीवन

हड़प्पा सभ्यता का सामाजिक जीवन विभिन्न वर्गों में बंटा हुआ था, हालाँकि यह विभाजन मिस्र या मेसोपोटामिया जैसा कठोर नहीं था। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर, समाज को मोटे तौर पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:

वर्ग विभाजन

शासक/धनी वर्ग: यह वर्ग गढ़ (Citadel) क्षेत्र में रहता था और बड़े घरों में निवास करता था। इसमें पुजारी, व्यापारी या प्रशासक शामिल हो सकते थे जो शहर के मामलों और व्यापार को नियंत्रित करते थे।

मध्यम वर्ग: इस वर्ग में कारीगर, व्यापारी और किसान शामिल थे जो निचले शहर (Lower Town) में रहते थे। इनके घर छोटे थे, लेकिन ये आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे।

मजदूर वर्ग: इसमें दास और मजदूर शामिल थे जो शहर की बाहरी बस्तियों या छोटे घरों में रहते थे। ये लोग खेती, निर्माण और अन्य दैनिक कार्यों में लगे थे।

पहनावा और आभूषण

पहनावा: हड़प्पावासी सूती और ऊनी कपड़े पहनते थे। पुरुष धोती जैसा वस्त्र और महिलाएँ स्कर्ट जैसा वस्त्र पहनती थीं।

आभूषण: स्त्री और पुरुष दोनों आभूषण पहनते थे। आभूषणों में हार, कंगन, अंगूठियाँ और पाजेब शामिल थे। अमीर लोग सोने, चाँदी और हाथीदाँत के आभूषण पहनते थे, जबकि गरीब लोग मिट्टी, हड्डी या ताँबे के आभूषण पहनते थे।

मनोरंजन

खेल: बच्चों के लिए मिट्टी के खिलौने, जैसे बैलगाड़ी और पशु-पक्षी, बहुत लोकप्रिय थे।

मनोरंजन के साधन: वयस्क पासे और मछली पकड़ने जैसे खेलों से मनोरंजन करते थे। नृत्य भी मनोरंजन का एक साधन था, जैसा कि मोहनजोदड़ो से मिली नर्तकी की मूर्ति से पता चलता है।

अंत्येष्टि संस्कार

हड़प्पावासी मृतकों को दफनाने या जलाने दोनों तरीकों का प्रयोग करते थे।

दफन: आमतौर पर शवों को कब्रों में दफनाया जाता था। कुछ कब्रों में मिट्टी के बर्तन, आभूषण और औजार जैसी वस्तुएँ मिली हैं, जो यह दर्शाती हैं कि वे पुनर्जन्म या मृत्यु के बाद के जीवन में विश्वास करते थे।

अंतिम संस्कार: कुछ स्थानों पर राख और हड्डियों के अवशेष भी मिले हैं, जिससे पता चलता है कि वे दाह संस्कार भी करते थे।

हड़प्पा सभ्यता का धार्मिक प्रथाएँ

हड़प्पा सभ्यता में धर्म की कोई स्पष्ट और संगठित प्रणाली नहीं थी, जैसा कि हम आज के धर्मों में देखते हैं। इसके बावजूद, पुरातत्वविदों ने खुदाई से मिले कुछ साक्ष्यों के आधार पर उस समय की धार्मिक प्रथाओं के बारे में अनुमान लगाए हैं। इन प्रथाओं में शामिल हैं:

मातृदेवी की पूजा

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से भारी संख्या में नारी मूर्तियों (Terracotta figurines) की प्राप्ति हुई है। इन मूर्तियों में एक महिला को आभूषणों से सजा हुआ दिखाया गया है, और कभी-कभी उसके गर्भ से एक पौधा निकलता हुआ भी दर्शाया गया है।  इन मूर्तियों को देखकर विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि हड़प्पावासी धरती को उर्वरता की देवी मानकर मातृदेवी की पूजा करते थे। यह प्रथा कृषि समाज में आम होती है, जहाँ धरती को जीवन और पोषण का स्रोत माना जाता है।

पशुपति महादेव

मोहनजोदड़ो में एक मुहर मिली है जिस पर एक त्रिशूल के आकार का मुकुट पहने, तीन मुख वाले देवता को पद्मासन मुद्रा में बैठा दिखाया गया है। उसके चारों ओर एक हाथी, एक बाघ, एक गैंडा और एक भैंसा जैसे जानवर हैं, और नीचे दो हिरण बैठे हैं। कुछ विद्वानों ने इस देवता की पहचान शिव के आदि रूप पशुपति महादेव से की है। यह मुहर जानवरों के प्रति उनकी श्रद्धा और योग जैसी प्रथाओं के अस्तित्व की ओर भी इशारा करती है।

जानवरों और प्रकृति की पूजा

हड़प्पा सभ्यता के लोग वृक्षों, विशेषकर पीपल के पेड़ की पूजा करते थे, जिसके साक्ष्य मुहरों और मिट्टी के बर्तनों पर मिलते हैं। इसके अलावा, कई मुहरों पर एक सींग वाले जानवर (Unicorn) को दिखाया गया है, जो शायद किसी पवित्र या काल्पनिक जानवर का प्रतीक था।  नागों और अन्य जानवरों की पूजा के भी संकेत मिले हैं, जो यह दर्शाता है कि प्रकृति और जानवरों का उनके धार्मिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान था।

प्रतीकात्मक पूजा और बलि प्रथा

पुरातत्वविदों ने यज्ञ वेदियों (fire altars) और कुछ स्थानों पर जानवरों की हड्डियों की प्राप्ति से यह अनुमान लगाया है कि हड़प्पावासी शायद बलि प्रथा में भी विश्वास करते थे। इसके अलावा, कुछ लिंग (phallus) और योनि (ring stones) के आकार की वस्तुएं भी मिली हैं, जो प्रजनन क्षमता की पूजा से जुड़ी हो सकती हैं। यह दर्शाता है कि उनके धार्मिक विश्वास काफी विविध थे और प्रकृति की शक्तियों से गहराई से जुड़े थे।

कुल मिलाकर, हड़प्पा सभ्यता की धार्मिक प्रथाएँ बहुदेववाद और प्रकृति पूजा पर आधारित थीं, जिनका कोई केंद्रीय मंदिर या धर्मग्रंथ नहीं था। ये प्रथाएँ आज भी भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ हिस्सों में प्रचलित हैं, जो हड़प्पा सभ्यता के प्रभाव को दर्शाती हैं।

सिंधु घाटी के पुरूष देवता

सिंधु घाटी सभ्यता के पुरुष देवता को आमतौर पर पशुपति महादेव के रूप में जाना जाता है, हालाँकि यह नाम इतिहासकारों द्वारा दिया गया है। उनकी पहचान मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक प्रसिद्ध मुहर के आधार पर की गई है

पशुपति मुहर की प्रमुख विशेषताएँ:

ध्यान मुद्रा: देवता एक योगिक मुद्रा में बैठे हैं, जो ध्यान या योग का संकेत देती है।

उनके पैर एक-दूसरे के ऊपर रखे हुए हैं।

तीन मुख: देवता के तीन चेहरे हैं और उनके सिर पर त्रिशूल के आकार का मुकुट है

, जिसमें दो सींग भी दिखाई देते हैं। यह बाद के हिंदू धर्म में भगवान शिव के त्रिशूल और उनकी योगिक छवि से समानता रखता है।

पशुओं से घिरे:– देवता एक हाथी, एक बाघ, एक गैंडा और एक भैंसा जैसे जानवरों से घिरे हुए हैं। उनके आसन के नीचे दो हिरण बैठे हैं। इसी कारण उन्हें “पशुपति” (पशुओं का स्वामी) कहा गया है।

यह मुहर यह दर्शाती है कि सिंधु घाटी के लोग प्रकृति और पशुओं की पूजा करते थे और संभवतः एक ऐसे देवता में विश्वास करते थे, जो योग और ध्यान से जुड़ा हुआ था। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह देवता आज के हिंदू धर्म के भगवान शिव का ही एक आदिम या प्रारंभिक रूप थे। इसके अलावा, सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों से कई शिवलिंग और योनि के प्रतीक भी मिले हैं, जो लिंग पूजा के प्रचलन का संकेत देते हैं।

सिंधु घाटी के लिपि

सिंधु घाटी की लिपि को अभी तक पूरी तरह से पढ़ा नहीं जा सका है, इसलिए इसे एक अवाचित (undeciphered) लिपि माना जाता है। यह लिपि चित्रात्मक (pictographic) थी, जिसका अर्थ है कि इसमें विचारों

और वस्तुओं को दर्शाने के लिए प्रतीकों और चित्रों का उपयोग किया गया था।

सिंधु लिपि की प्रमुख विशेषताएँ:

चित्रात्मक प्रकृति: इस लिपि में लगभग 400 से 600 अलग-अलग प्रतीक या

चिह्न पाए गए हैं। इनमें से कुछ प्रतीक जानवरों, मानव आकृतियों, और ज्यामितीय आकृतियों को दर्शाते हैं।

लेखन की दिशा:– ऐसा माना जाता है कि यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी, हालांकि कुछ अभिलेखों में बाईं से दाईं ओर लिखने के प्रमाण भी मिले हैं।

सबसे लंबा लेख: अब तक का सबसे लंबा मिला लेख 26 चिह्नों का है। ज्यादातर लेख बहुत छोटे हैं, जिनमें कुछ ही चिह्न होते हैं।

प्रकाशन: यह लिपि मुहरों (seals), मिट्टी के बर्तनों (pottery) और तांबे की वस्तुओं पर खुदी हुई मिली है।

विद्वानों द्वारा इस लिपि को पढ़ने के कई प्रयास किए गए हैं, लेकिन कोई भी प्रयास सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया है। जब तक यह लिपि नहीं पढ़ी जाती, तब तक सिंधु घाटी सभ्यता के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक जीवन के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ रहस्य बनी रहेंगी।

सिंधु घाटी के माप-तौल

सिंधु घाटी के लोग व्यापार और वाणिज्य में माप-तौल के एक सुविकसित और मानकीकृत प्रणाली का उपयोग करते थे। पुरातत्वविदों को खुदाई में कई बाट (वजन) और माप के पैमाने मिले हैं, जो उनकी उन्नत समझ को दर्शाते हैं।

बाटों की विशेषताएँ:-

आकार और सामग्री: अधिकांश बाट घनाकार (cubical) होते थे और आमतौर पर चूना पत्थर (limestone), सेलखड़ी (steatite), और चर्ट (chert) जैसे कठोर पत्थरों से बनाए जाते थे।  इनकी सतह बहुत चिकनी और पॉलिश की हुई होती थी।

गणितीय प्रणाली:– तौल के लिए एक द्विआधारी (binary) और दशमलव (decimal) प्रणाली का उपयोग किया जाता था। छोटे बाटों में 1, 2, 4, 8, 16, 32 के अनुपात में द्विआधारी प्रणाली का पालन होता था, जबकि बड़े बाटों में दशमलव प्रणाली का उपयोग होता था।

मानकीकरण: इन बाटों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उनका मानकीकरण (standardization) था। पूरे सभ्यता क्षेत्र में एक ही तरह के बाट मिले हैं, जिससे यह पता चलता है कि व्यापार में एकरूपता बनाए रखने के लिए एक केंद्रीय नियंत्रण प्रणाली मौजूद थी।

माप के पैमाने

पैमाने की खोज: मोहनजोदड़ो से एक सीप (shell) का बना पैमाना और लोथल से हाथी दाँत (ivory) का बना एक पैमाना मिला है।

माप की इकाई: ये पैमाने काफी सटीक थे और इनमें से एक की सबसे छोटी इकाई लगभग 1.6 मिलीमीटर तक सटीक मानी जाती है। यह उनकी माप की सटीकता को दर्शाता है।

सिंधु घाटी सभ्यता में माप-तौल की यह व्यवस्था यह साबित करती है कि यह सभ्यता एक उन्नत और संगठित व्यापारिक समाज थी।

सिंधु घाटी सभ्यता के मृद्भांड (मिट्टी के बर्तन)

सिंधु घाटी सभ्यता के मृद्भांड (मिट्टी के बर्तन) उस समय की कला और शिल्प कौशल का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ये बर्तन उनके दैनिक जीवन, व्यापार और संस्कृति की जानकारी देते हैं।

मृद्भांड की प्रमुख विशेषताएँ:

निर्माण: अधिकांश बर्तन चाक पर बनाए जाते थे, जो उनके कुम्हारों की

दक्षता को दर्शाता है। ये अच्छी तरह से पकाए हुए और मजबूत होते थे।

रंग और सजावट:

सादे मृद्भांड: इनमें से अधिकांश लाल रंग के थे और चिकनी मिट्टी से बने होते थे।

चित्रित मृद्भांड: ये लाल रंग के आधार पर काले रंग की चित्रकारी से सजाए जाते थे। कहीं-कहीं बहुरंगी मृद्भांड भी मिले हैं, जिन पर लाल, काले, हरे और कभी-कभार सफेद व पीले रंग से ज्यामितीय आकृतियाँ बनी होती थीं, लेकिन ये बहुत कम थे।

चित्रकारी के विषय: बर्तनों पर ज्यामितीय आकृतियों जैसे त्रिभुज, वृत्त, और वर्ग के अलावा, वनस्पति, पीपल के पत्ते, पेड़-पौधे और जानवरों के चित्र भी बनाए जाते थे।

उपयोग: ये बर्तन कई तरह के होते थे, जैसे प्याले, थालियाँ, कलश, मर्तबान, गिलास, कटोरियाँ और अनाज को मापने वाले पात्र। कुछ बर्तनों में पेय पदार्थों को छानने के लिए नीचे की तरफ छेद भी होते थे।

मानकीकरण: इन बर्तनों का आकार और गुणवत्ता पूरे सभ्यता क्षेत्र में काफी हद तक एक समान थी, जो एक मानकीकृत उत्पादन प्रक्रिया का संकेत देती है।

सिंधु घाटी सभ्यता के मुहरें

सिंधु घाटी सभ्यता की मुहरें उनकी सबसे विशिष्ट और कलात्मक पुरावस्तुओं में से एक हैं। इन मुहरों ने हमें उस सभ्यता के व्यापार, धर्म, और सामाजिक जीवन को समझने में मदद की है।

मुहरों की प्रमुख विशेषताएँ

सामग्री:– अधिकांश मुहरें सेलखड़ी (steatite) नामक नरम पत्थर से बनी होती थीं।

इसके अलावा, गोमेद चकमक पत्थर तांबे कांसे और मिट्टी से बनी मुहरें भी मिली हैं।

आकार और बनावट: मुहरें आमतौर पर वर्गाकार  थीं,  कुछ आयताकार , गोलाकार

और बेलनाकार मुहरें भी पाई गई हैं। इन पर उभरे हुए चित्र और लिपि उत्कीर्णित होते थे।

चित्र और प्रतीक: मुहरों पर विभिन्न पशुओं की आकृतियाँ सबसे आम हैं। इनमें एकश्रृंगी बैल (unicorn bull), कूबड़ वाला बैल, बाघ, हाथी, गैंडा और भैंस जैसे जानवर शामिल हैं। एक प्रसिद्ध मुहर पर एक योगी की आकृति है, जिसे आमतौर पर पशुपति महादेव माना जाता है, जो जानवरों से घिरा हुआ है।

लिपि:हर मुहर पर एक चित्रात्मक लिपि खुदी होती थी, जिसे अभी तक पूरी तरह से पढ़ा नहीं जा सका है।

मुहरों का उपयोग

व्यापारिक मुहर: मुहरों का मुख्य उपयोग व्यापार में सामान की पहचान और सुरक्षा के लिए किया जाता था। व्यापारी सामान के बंडल पर गीली मिट्टी लगाकर उस पर मुहर लगा देते थे, जिससे पता चलता था कि सामान के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है।

ताबीज और धार्मिक महत्व: कुछ मुहरों का उपयोग ताबीज के रूप में भी किया जाता था। इन पर बने पशुओं और प्रतीकों से उस समय के धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं की जानकारी मिलती है।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रतिमाएँ

सिंधु घाटी सभ्यता की कला में प्रतिमाएँ एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इन प्रतिमाओं से हमें उस समय के लोगों की कलात्मक समझ, धार्मिक विश्वासों और सामाजिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है। ये प्रतिमाएँ मुख्य रूप से पत्थर, धातु (कांसा) और मिट्टी (टेराकोटा) से बनी हैं।

पत्थर की प्रतिमाएँ:-

दाढ़ी वाले पुरुष की प्रतिमा:- मोहनजोदड़ो से एक दाढ़ी वाले पुरुष की प्रतिमा मिली है,

जिसे पुरोहित राजा (Priest King) माना जाता है। यह प्रतिमा सेलखड़ी (steatite)

पत्थर से बनी है। इसमें पुरुष को एक शॉल ओढ़े दिखाया गया है, जिस पर तिपतिया

पत्ती (trefoil) का डिज़ाइन है। उसकी दाढ़ी करीने से सँवारी हुई है और उसकी आँखें

आधी बंद हैं, जो ध्यान की मुद्रा को दर्शाती हैं।

पुरुष धड़:– हड़प्पा से दो लाल चूना पत्थर (red limestone) के बने पुरुष धड़ मिले हैं।

ये धड़ सिर-विहीन हैं और इनमें मांसपेशियों को बहुत ही स्वाभाविक तरीके से दर्शाया गया है

, जो इस बात का सबूत है कि उस समय के कारीगर मानव शरीर रचना से परिचित थे।

कांस्य की प्रतिमाएँ

नर्तकी की मूर्ति: मोहनजोदड़ो से मिली नर्तकी (Dancing Girl) की मूर्ति सिंधु घाटी

की सबसे प्रसिद्ध प्रतिमाओं में से एक है। यह लगभग 10.5 सेमी ऊँची है और इसे

मोम-नष्ट विधि (lost-wax technique) से बनाया गया था। यह मूर्ति एक नग्न

युवती को आत्मविश्वास से खड़ी मुद्रा में दिखाती है, जिसके एक हाथ में चूड़ियाँ भरी हुई हैं।

अन्य कांस्य प्रतिमाएँ: इसके अलावा, कांसे से बनी भैंस और बकरी की मूर्तियाँ भी मिली हैं, जो जानवरों के प्रति उनके लगाव को दर्शाती हैं।

मिट्टी (टेराकोटा) की प्रतिमाएँ

मातृदेवी की मूर्तियाँ:– सिंधु घाटी के कई स्थलों से बड़ी संख्या में टेराकोटा की मातृदेवी

की मूर्तियाँ मिली हैं। ये मूर्तियाँ आमतौर पर हाथ से बनाई गई थीं और इनमें एक

महिला को आभूषणों से सजा हुआ दिखाया गया है।

पशुओं की आकृतियाँ: टेराकोटा से बने जानवरों, जैसे बैल, बंदर और कुत्तों की मूर्तियाँ भी मिली हैं।

इन प्रतिमाओं से यह स्पष्ट होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग न केवल कुशल शिल्पकार थे, बल्कि उनमें कला की गहरी समझ भी थी।

सिंधु घाटी सभ्यता कि मृण्मूर्तियाँ

सिंधु घाटी सभ्यता की मृण्मूर्तियाँ (टेराकोटा की मूर्तियाँ) उस समय के लोगों के कलात्मक कौशल और धार्मिक विश्वासों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थीं। ये मूर्तियाँ पकी हुई मिट्टी से बनाई जाती थीं और इनकी संख्या पत्थर और कांस्य की मूर्तियों से कहीं अधिक है।

मृण्मूर्तियों की प्रमुख विशेषताएँ

निर्माण विधि: ये मूर्तियाँ हाथ से गढ़ी जाती थीं, जिनमें चिकोटी पद्धति (pinching method) का प्रयोग प्रमुख था। इनमें अक्सर आँखें, नाक और आभूषणों को अलग से जोड़कर बनाया जाता था।

कलात्मकता:– पत्थर और कांस्य की मूर्तियों की तुलना में, ये मूर्तियाँ थोड़ी कम परिष्कृत होती थीं, लेकिन इनमें एक विशेष प्रकार की जीवंतता होती थी।

विषय-वस्तु:

मातृदेवी की मूर्तियाँ: सबसे अधिक संख्या में मिली मूर्तियाँ मातृदेवी की हैं। इन मूर्तियों में एक महिला को आभूषणों और सिर पर पंखे जैसे मुकुट के साथ दिखाया गया है। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि हड़प्पावासी मातृशक्ति और उर्वरता की पूजा करते थे।

पशु मूर्तियाँ:– जानवरों की मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में मिली हैं। इनमें कूबड़ वाले बैल, भैंस, बंदर, और कुत्तों की मूर्तियाँ शामिल हैं। ये मूर्तियाँ या तो धार्मिक महत्व रखती थीं या बच्चों के खिलौनों के रूप में इस्तेमाल की जाती थीं।

पुरुष और अन्य आकृतियाँ: कुछ दाढ़ी वाले पुरुष और अन्य मानव आकृतियों की छोटी मूर्तियाँ भी मिली हैं, जो संभवतः देवताओं या सामान्य मनुष्यों का प्रतिनिधित्व करती थीं।

महत्व

सिंधु घाटी की मृण्मूर्तियाँ उस सभ्यता के धार्मिक विश्वासों और दैनिक जीवन की एक स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। ये मूर्तियाँ न केवल कला का एक रूप थीं, बल्कि उस समय के समाज और संस्कृति को समझने के लिए भी एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

सिंधु घाटी सभ्यता मे  अंतिम संस्कार

सिंधु घाटी सभ्यता में अंतिम संस्कार के लिए तीन प्रमुख तरीके प्रचलित थे, जो उस समय के लोगों के धार्मिक विश्वासों और सामाजिक प्रथाओं को दर्शाते हैं। ये तरीके हैं:

  1. पूर्ण समाधीकरण (Complete Burial)

यह सबसे आम तरीका था। इसमें शव को जमीन में गड्ढा खोदकर दफनाया जाता था। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा और लोथल जैसे स्थलों पर इस तरह के कब्रिस्तान मिले हैं।

शव की दिशा: अधिकांश शवों को उत्तर-दक्षिण दिशा में रखा जाता था, जिसमें सिर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर होते थे।

सामान: शवों के साथ अक्सर मिट्टी के बर्तन, आभूषण और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी दफनाई जाती थीं। इससे यह संकेत मिलता है कि वे लोग पुनर्जन्म या मृत्यु के बाद के जीवन में विश्वास करते थे।

लोथल में युगल समाधियाँ: लोथल में कुछ कब्रों में युगल समाधियाँ (double burials) मिली हैं, जिनमें एक पुरुष और एक स्त्री को एक साथ दफनाया गया है। यह सती प्रथा से संबंधित हो सकता है या किसी अन्य प्रथा का हिस्सा रहा होगा।

  1. आंशिक समाधीकरण (Partial Burial)

इस विधि में, शव को पहले खुले में छोड़ दिया जाता था ताकि जानवर और पक्षी उसे खा सकें। उसके बाद बची हुई हड्डियों और अस्थियों को इकट्ठा करके दफना दिया जाता था। यह प्रथा कुछ क्षेत्रों में प्रचलित थी, लेकिन इसके प्रमाण कम मिले हैं।

  1. दाह-संस्कार (Cremation)

मोहनजोदड़ो से कुछ स्थानों पर राख और अस्थियों से भरे हुए बर्तन मिले हैं, जो दाह-संस्कार के बाद की राख को इकट्ठा करने का संकेत देते हैं। हालांकि, यह तरीका पूर्ण समाधीकरण की तुलना में कम प्रचलित था, लेकिन इससे यह पता चलता है कि यह भी अंतिम संस्कार का एक तरीका था।

सिंधु घाटी के लोगों की अंतिम संस्कार की प्रथाओं में विविधता थी, लेकिन इससे यह स्पष्ट है कि वे मृत्यु के बाद के जीवन में विश्वास करते थे और अपने मृतकों का सम्मान करते थे।

सिंधु घाटी सभ्यता का पतन

सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के विषय में अलग-अलग विद्वानों ने अपने मत प्रस्तुत किए हैं। कोई एक कारण सर्वमान्य नहीं है, बल्कि यह कई सिद्धांतों का एक जटिल मिश्रण माना जाता है।

  1. आर्य आक्रमण का सिद्धांत

यह सिद्धांत पहले काफी लोकप्रिय था, लेकिन अब इसे व्यापक रूप से अस्वीकृत कर दिया गया है।

मत: मोर्टिमर व्हीलर और गॉर्डन चाइल्ड जैसे विद्वानों का मानना था कि मध्य एशिया से आए आर्यों के आक्रमण के कारण इस सभ्यता का अंत हुआ। व्हीलर ने मोहनजोदड़ो में मिले नरकंकालों के आधार पर यह तर्क दिया था कि यह एक नरसंहार का परिणाम था।

खंडन: बाद के शोधों से पता चला कि कंकाल किसी एक ही समय के नहीं थे और आक्रमण के कोई ठोस पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिले।

  1. प्राकृतिक आपदा और बाढ़

इस सिद्धांत के अनुसार, प्राकृतिक घटनाओं ने सभ्यता को नष्ट कर दिया।

मत: जॉन मार्शल और अर्नेस्ट मैके जैसे विद्वानों ने मोहनजोदड़ो में बाढ़ के कई स्तरों के प्रमाण मिलने के आधार पर यह माना कि बार-बार आने वाली बाढ़ों ने इस सभ्यता को तबाह कर दिया।

भू-तात्विक परिवर्तन:– आर. एल. राइक्स, जॉर्ज एफ. डेल्स, और एम. आर. साहनी जैसे भूवैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि सिंधु क्षेत्र में भू-तात्विक परिवर्तन और टेक्टोनिक प्लेटों की हलचल के कारण नदियों ने अपना मार्ग बदल दिया, जिससे शहरों में पानी भर गया और जीवन अस्त-व्यस्त हो गया।

  1. पर्यावरणीय असंतुलन और जलवायु परिवर्तन

यह सिद्धांत वर्तमान में सबसे विश्वसनीय माना जाता है।

मत: डी. पी. अग्रवाल और अम्लानंद घोष जैसे विद्वानों का कहना है कि जलवायु में बदलाव के कारण वर्षा की मात्रा कम हो गई और घग्गर-हकरा नदी सूख गई। इससे कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई।

वनों की कटाई:– फेयर सर्विस जैसे विद्वानों ने तर्क दिया कि बढ़ती जनसंख्या के कारण वनों की अत्यधिक कटाई हुई, जिससे पारिस्थितिक असंतुलन पैदा हुआ और धीरे-धीरे सभ्यता का पतन हो गया।

  1. व्यापारिक पतन और प्रशासनिक शिथिलता

मत: जॉन मार्शल जैसे विद्वानों ने यह भी माना कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में प्रशासनिक शिथिलता आ गई थी, जिसके कारण शहरों का सुनियोजित प्रबंधन और जल निकासी प्रणाली कमजोर पड़ गई।

व्यापारिक पतन: मेसोपोटामिया जैसे क्षेत्रों से व्यापार के कमजोर पड़ने से आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई, जिससे शहरों का पतन हुआ।

इनमें से पर्यावरणीय परिवर्तन और नदियों का सूखना सबसे ठोस और स्वीकार्य सिद्धांत माने जाते हैं, जो सिंधु सभ्यता के अंत की व्याख्या करते हैं।

सिंधु सभ्यता के पतन में इतिहासकारों का मत

इतिहासकार मत
1. गॉर्डन चाइल्ड व व्हीलर सैंधव सभ्यता विदेशी आक्रमण व आर्यों के आक्रमण से नष्ट हुई।
2. जॉन मार्शल इस सभ्यता के विनाश के लिए भूकंप उत्तरदायी था। प्रशासनिक शिथिलता के कारण इस सभ्यता का विनाश हुआ।
3. अर्नेस्ट मैके, जॉन मार्शल सिंधु सभ्यता बाढ़ के कारण नष्ट हुई।
4. फेयर सर्विस संसाधन में कमी, वनों का कटाव एवं पारिस्थितिक असंतुलन पतन का कारण था।
5. ऑरेल स्टाइन जलवायु परिवर्तन के कारण यह सभ्यता नष्ट हो गई।
6. मार्टीमर व्हीलर हड़प्पा सभ्यता का आकस्मिक अंत हुआ था। हड़प्पा सभ्यता का आधार विदेशी था।
7. लैम्ब्रिक जनसंख्या वृद्धि
8. एम.आर. साहनी यह सभ्यता भू-तात्विक परिवर्तन के कारण नष्ट हुई।
9. राइक्स व डेल्स, डी. डी. कोशांबी मोहनजोदड़ो के लोगों की आग लगाकर हत्या कर दी गई।

सिंधु घाटी सभ्यता का उत्पत्ति कैसे हुआ

सिंधु घाटी सभ्यता की उत्पत्ति एक क्रमिक प्रक्रिया थी, जो कि कई हज़ार वर्षों के विकास का परिणाम थी। यह अचानक नहीं हुई, बल्कि छोटे ग्रामीण समुदायों के शहरी सभ्यता में बदलने का एक लंबा सफर था।

1.नवपाषाण काल के गाँव (लगभग 7000 ईसा पूर्व) :-

सभ्यता की जड़ें नवपाषाण काल में खोजी जा सकती हैं। मेहरगढ़ जैसे स्थलों पर 7000 ईसा पूर्व के कृषि के शुरुआती प्रमाण मिले हैं।

यहाँ के लोग गेहूँ और जौ की खेती करते थे और पशुपालन करते थे। ये शुरुआती गाँव ही बाद में विकसित होते गए।

  1. प्रारंभिक हड़प्पा चरण (लगभग 3300-2600 ईसा पूर्व)

यह वह समय था जब ग्रामीण जीवन संगठित होने लगा था।

छोटे, बिखरे हुए गाँवों का उदय हुआ। लोग मिट्टी की ईंटों के घर बनाने लगे और चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाने की कला में कुशल हो गए।

इन समुदायों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्क बढ़ने लगे। एक समान संस्कृति की शुरुआत होने लगी।

इस चरण के कुछ स्थलों जैसे कालीबंगा में खेती के लिए हल से जुते हुए खेतों के प्रमाण मिले हैं, जो कृषि में उन्नत तकनीकों का संकेत देते हैं।

  1. परिपक्व हड़प्पा चरण का उदय (लगभग 2600-1900 ईसा पूर्व)

उपरोक्त प्रारंभिक चरणों के विकास ने अंततः सिंधु घाटी के विशाल शहरों का मार्ग प्रशस्त किया।

अचानक बड़े शहरों जैसे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का उदय हुआ। इन शहरों का निर्माण एक सुनियोजित ढंग से किया गया था, जिनमें पक्की ईंटों के घर, उन्नत जल निकासी व्यवस्था और सड़कें थीं।

बाट (वजन) और मुहरों जैसी वस्तुओं में एकरूपता पाई गई, जो एक केंद्रीकृत प्रशासन और संगठित व्यापार प्रणाली की ओर इशारा करती है।

इस प्रकार, सिंधु घाटी सभ्यता की उत्पत्ति हजारों वर्षों के क्रमिक विकास का परिणाम थी, जिसमें ग्रामीण जीवन धीरे-धीरे एक जटिल और सुनियोजित शहरी सभ्यता में बदल गया।

सिंधु घाटी सभ्यता के उत्पत्ति के संबंध में अलग-अलग विद्वानों का मत 

सिंधु घाटी सभ्यता की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों के दो प्रमुख मत हैं: विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत और स्वदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत।

  1. विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत

इस मत के अनुसार, सिंधु सभ्यता की उत्पत्ति मेसोपोटामिया या सुमेरियन सभ्यता से हुई थी।

मत: अर्नेस्ट मैके और व्हीलर जैसे विद्वानों ने तर्क दिया कि सुमेरियन सभ्यता के लोग भारत आए और उन्होंने यहाँ की स्थानीय संस्कृति को एक शहरी सभ्यता में बदल दिया।

आधार:– इस सिद्धांत का आधार सिंधु और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं के बीच पाई गई कुछ समानताएँ थीं, जैसे मुहरों का उपयोग और कुछ शहरी विशेषताएँ।

खंडन:– इस सिद्धांत को अब ज्यादातर अस्वीकार कर दिया गया है क्योंकि दोनों सभ्यताओं के नगर नियोजन, लेखन शैली, जल निकासी प्रणाली और कला में महत्वपूर्ण अंतर पाए गए हैं। सिंधु सभ्यता की अपनी विशिष्ट विशेषताएँ थीं जो मेसोपोटामिया से भिन्न थीं।

  1. स्वदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत

यह सिद्धांत वर्तमान में सबसे अधिक स्वीकार्य है। इसके अनुसार, सिंधु सभ्यता का विकास भारत में ही स्थानीय संस्कृतियों से हुआ था।

मत: डी. पी. अग्रवाल, अम्लानंद घोष और फेयर सर्विस जैसे विद्वानों का मानना है कि सिंधु सभ्यता का उदय मेहरगढ़ और कालीबंगा जैसी प्रारंभिक हड़प्पा संस्कृतियों से हुआ था।

आधार:पाकिस्तान में स्थित मेहरगढ़ जैसे स्थलों पर 7000 ईसा पूर्व के कृषि और पशुपालन के प्रमाण मिले हैं। यह सभ्यता का शुरुआती आधार था।

हकरा संस्कृति: घग्गर-हकरा क्षेत्र में खुदाई से एक ग्रामीण संस्कृति के अवशेष मिले हैं, जिसने धीरे-धीरे शहरीकरण का रूप ले लिया।

निरंतरता: विद्वानों ने प्रारंभिक हड़प्पा चरण और परिपक्व हड़प्पा चरण के बीच संस्कृति, शिल्प, और मिट्टी के बर्तनों में एक स्पष्ट निरंतरता (continuity) पाई है।

संक्षेप में, अधिकांश विद्वान अब इस बात से सहमत हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता विदेशी प्रभाव के बजाय स्थानीय ग्रामीण संस्कृतियों के क्रमिक विकास का परिणाम थी।

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